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शिप्रा पाण्डेय "शिप"
Thursday, December 29, 2011
सज़ा रहें है महफ़िल नयी खुशिओं से पर,
तेरे बगैर समा जलना अब अच्छा न लगे |
ये घूघंट का गिराना भरी तो पड़ा है ,
तेरे बगैर उठाना अब अच्छा न लगे |
इस महफ़िल पे नज़र मेरी पड़ जाए न कहीं;
तेरे बगैर ये जमाना अब अच्छा न लगे|
साज़ पे है ग़ज़ल वो धुन भी साथ है,
तेरे बगैर ये तराना अब अच्छा न लगे|
इंतजार में तेरे यहाँ मै बेचैन पड़ी,
तेरे बगैर ये शहर अब अच्छा न लगे |
आ जा सनम हम तेरे दीदार को तरसें,
तेरे बगैर कुछ और अब अच्छा न लगे|
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शिप्रा पाण्डेय "शिप"
Monday, September 26, 2011
मै नहीं हूँ मेरी यादों से लिपट करके रोए हो
मेरी तस्वीर के आगे बैठ करके रोए हो |
गैर कहते ही रहे मुझको हर पल तुम तो
मै नहीं हूँ मेरे साये को देख करके रोए हो |
तेरी खुशिओं में सजी है महफ़िल फिर तो
जशन- ए-रात की तन्हाई में सिमट करके रोए हो |
मेरे दिल को जला कर हुई तसल्ली तुमको
अश्क आँखों में समेटे जी भरके रोए हो |
मै थी जिंदा थी तेरी पर तू नहीं मेरा
मेरी तस्वीर को सीने से लगा करके रोए हो |
मेरे दिल में खुदे थे नक्श तेरे
अपनी नफरत को बहुत देर बता करके रोए हो |
जब तलक थे हम हजारों गिले थे तुम्हे
अब नही हूँ इश्क बलिस्तों से नाप करके रोए हो |
"निमिशा" लिखती ही रही खुद की ग़ज़ल तुम पर
नहीं है वो ये अफसाने दुहरा करके रोए हो |
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शिप्रा पाण्डेय "शिप"
Thursday, September 15, 2011
बंद करके आँखों से जो देखा तो एक ख्वाब था |
खोल कर जो रुख किया तो सामने शराब था |
मय के खुशबू फर्श से दिल के दीवारों तक थी
हाय ! ये मदिरा नही इश्क का शबाब था |
शाम थी जो ढली तो निशा आ गई,
तारीकिओं में डूबकर इश्क पाना तेजाब था |
ज़िक्र करते है दीवाने राहगीर का यहाँ ,
जो लुट गया आकर शहर में कहीं का नबाब था |
आबे - हैवां की बरसात थी इश्किया रात में,
ईख्राज़त ख्याल में दिल रमां जनाब था |
शब्बे - वस्ल को महबूब से मुआसात कुछ यूँ हुई,
इख्तिलात गैर से दीवाना बना कबाब था|
मुख़्तसर ही सही इबादत थी उसकी मोहब्बत,
खामोश था हर बात पर पैमाना ही हर जबाब था|
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शिप्रा पाण्डेय "शिप"
Wednesday, August 24, 2011
यूँ समंदर में अकेले डूब जाना अच्छा है
यूँ आसमा में दूर तन्हा उड़ जाना अच्छा है
कोई छोड़ दे रस्ते में साथ अपना तो
ज़िन्दगी ये तन्हा और तन्हा जी जाना अच्छा है...|
यूँ शिशिर की रात में ठिठुर जाना अच्छा है
यूँ पवन के झोकों में बह जाना अच्छा है
कोई ग़म दे दस्तक अगर दिल पे बार- बार
तो ऐसी याद से दूर और दूर हो जाना अच्छा है
उनके ख़्वाबों में खुद से अन्जान हो जाना अच्छा है,
अपनी ही धडकनें सुन हैरान हो जाना अच्छा है,
यकलख्त मिल जाए यहाँ गर भीड़ में सनम
भीड़ में गुमनाम और गुमनाम हो जाना अच्छा है
तारीकियों की गोद में सो जाना अच्छा है,
बगैर उनके इश्क के साँसें थम जाना अच्छा है,
ग़लतफ़हमी की आग में कभी जलने से पहले,
"शिप्रा" का अपनी ही लहरों में फ़ना और फ़ना हो जाना अच्छा है|
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शिप्रा पाण्डेय "शिप"
Friday, August 19, 2011
किसी गैर को अपना कह रहे थे हम
उसी गैर की खातिर जी रहे थे हम
आज एक झटके में टूटी है नींद अपनी
कि अब तो लगती ही नही आँखें यारों...|
अब न रहा किसी पे ऐतबार अपना
न करेंगे यकीं न प्यार इतना
और दर्द सहने की हिम्मत नहीं अपनी
कि खुदा से भी न रहा कोई गिला यारों...|
कभी एक प्यारा सा घरोंदा था बनाया
आज वो एक पल में यूँ ही ढह गया
किसी से इतनी दिल्लगी हो गई
कि दिल के टुकड़ों पे यकीं न रहा यारों...|
न कहेंगे किसी को अब अपना
न बुन सकेंगे कोई और सपना
जो हो गया वो थी अपनी किस्मत
अफ़सोस...
हम बदल न सके हाथों की लकीरें यारों ...|
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शिप्रा पाण्डेय "शिप"
Monday, August 15, 2011
चल रहे है आज भी हम यहाँ
राह भी वही रहगुजर है वही
बस किस्मत ही बदल गयी चलते हुए
इसमें नहीं दोष रहा इन क़दमों का |
हम चले थे आज भी उसी साहिल से
नही है तो बस साथ लहरों का
ये तूफाँ ही बहा ले गया दूर उसको
इसमें नही दोष रहा इन बूंदों का |
मंजिलें थी तो आज भी वहीँ
और टिका साहिल भी वहीं था
कुछ साथ न था तो वो गुजरा कल
इसमें नहीं दोष रहा इन लहरों का |
यहाँ के नज़ारे आज भी उतने हसीं हैं
की हर दिल यहाँ फिर से जवाँ हो जाते हैं
ओझल हो गई तो बस अपनी खिलखिलाहट
इसमें नहीं दोष रहा इन नज़रों का |
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शिप्रा पाण्डेय "शिप"
Saturday, August 13, 2011
है सावन की बरसात याद
है बचपन की हर बात याद
जब काले बादल होते थे
घनघोर घटा भी बरसी थी
उस बारिश में हम भीगे थे
उन बूंदों को भी पकडे थे
फिर कागज़ की नाव बनाकर
बारिश में दूर बहाते थे
उस नाव के पीछे-पीछे
कुछ दूर निकल भी जाते थे
जब कीचड़ में थे पैर पड़े
गिरते-थमते गिर जाते थे
है सावन की बरसात याद
है बचपन की हर बात याद
तब के दिन थे कितने अच्छे
सारे अपने थे कितने सच्चे
अब तो दुनिया भी झूटी है
हर एक को फरेब ने लूटी है
जब बड़े हुए तो पता चला
थे दुनिया से अनजान भला
बचपन में न चिंता थी
अपनी न कोई निंदा थी
वो रात सुहानी होती थी
माँ की लोरी सुनती थी
फिर नींद की रानी आती थी
सपनो का महल सजाती थी
न ऐसी रात कभी आई
न नींद की रानी फिर आई
वो सपने अपने टूट गए
वो सच्चे सारे छूट गए
बारिश वो सहसा थम गयी
बस बचा रहा तो वही डगर
बस बचा रहा तो वही शहर
वो ख़ुशी कही अब रही नही
बस बची रही तो याद वही
बस बची रही तो याद वही....
है बारिश की वो बात याद
है बचपन की हर बात याद...
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शिप्रा पाण्डेय "शिप"
Monday, June 27, 2011
गमी दिल में यूँ छाई कि हम सो न सके
अश्क आँखों में है मगर हम सो न सके|
नक्श आँखों में है मगर हम रो न सके
वो थे इन सांसो में मगर कभी मिल न सके|
अजब दास्ताँ है सुन ले ये खुदा तू भी
हम थे उनके मगर वो मेरे कभी हो न सके|
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शिप्रा पाण्डेय "शिप"
गुस्ताखी है गर देखते है बंद करके आँखे उन्हें,
खोला तो फिर क्यों नज़र आ गए है|
हम थे रखे उन्हें अपने खयालो में
देखते ही उनकी जुबान पे हम क्यों आ गए है|
हम नही सोचते थे के हो रु-ब-रु इस कदर
सारी कायनात थी खड़ी वो मिलने आ गए है|
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शिप्रा पाण्डेय "शिप"
Friday, June 24, 2011
ढूद्ती रहती है नज़रें हर घडी उनको ,
सहर से शाम तलक याद करें हम उनको |
वो काश मेरे होते तो गम कैसा,
न मिले तो दिल पर क्या बीतेगी क्या पता उनको
सांझ की दहलीज पर दिखा रौशनी सा है,
जाने दिल है जला या जला है दिया |
जलन की आग सुलग रही है ऐसे,
कितने सपने जला गई क्या पता उनको|